भाग .14
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मुझसे यदि कोई पूछे कि - "भागवत गीता" मेँ तुम्हेँ सबसे अच्छा और का अनमोल क्या लगा ।
तो ऐसे मेँ प्यारे दोस्तोँ मेरा एक ही जवाब होगा - "सर्वधमान् परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज ।
अहँत्वा सर्वपापेभ्यो ,
मोछश्चामि माशुचा ।
"प्रभु जी की शरणागति" ही पापनाशिनी ,भवतारिणी , शांति और मोछ प्रदायिनी अति सहज मार्ग है ।
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अब तक मेरे गुरुदेव "श्री भगवान" ने मुझे अनुभवों के माध्यम से यही दिखाया कि
जगत ब्यापी काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह और अहँकार इतने प्रभावशाली और तीछ्ण होते हैँ कि छण भर मेँ ही हमारी बुद्धि को सँक्रमित कर अपने दुष्प्रभाव मेँ ले लेती है ।
प्यारे दोस्तोँ कोई इन्सान बुरा नही होता है ये बुराइयाँ ही हमेँ बुरा बनाती है ।
और
इन बुराइयोँ से बचने के लिए परमात्मा के अतिरिक्त मुझे अन्य कोई सहारा प्रभावशाली नही दिखाई देता है ।
क्योँ कि "वो" सर्वब्यापी , सर्वसमर्थ और समस्त ब्रह्माण्ड के रचयिता हैँ ।
जब हम पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से अपना अहँ अपने प्रभु के चरणोँ मेँ अर्पित कर देतेँ हैँ
अर्थात अपने कर्मोँ को प्रभु प्रेरणा तथा इच्छा मानकर कर्म करते हैँ और जगदीश्वर को सच्चे हृदय से पुकारते हैं कि- " हे जगपालक ,हे शरणागत भक्तवत्सल दीनदयाल मेरा सम्पूर्ण जीवन आपकी इच्छा-कृपा पर निर्भर है
मैँ आपकी शरण मेँ हूँ नाथ ।
मेरे जीवन के समस्त कर्मोँ के कर्ता अब आप ही हैँ ।
मुझमेँ मेरा कुछ नही सबकुछ आपका है ।"
तो ऐसे मे हमेँ स्वयँ भी उस परम सत्ता के साथ होने का आभास होने लगेगा ।
हे प्रिय मित्रोँ इस बहुमूल्य भावना को नजर अन्दाज ना कीजिएगा ।
इस भावना के अपनाने के बाद प्रभु कृपा अथवा प्रेरणा से जब आपको ग्यान प्राप्त होगा तो आप स्वयँ ही जान जाऐँगे कि आपका ये मित्र शिव का प्रसाद कैसा अनमोल प्रसाद बाँट गया ।
प्यारे दोस्तोँ वैराग्य की घटना पर चर्चा करने से पहले मेरा हृदय इसी विषय पर लिखने को प्रेरित कर रहा था अतः लिख दिया ।
जिस मित्र को मेरे अनुभवोँ और विचारोँ मेँ सँदेह हो वो मित्र अपनी बात रख सकता है । मुझे अति प्रशन्नता होगी ।
क्योँ कि मैँ इस शरणागति की भावना को आपके हृदय मेँ बसाने का इच्छुक हूँ लाइक और कमेँट का नही ।
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की।।
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सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
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"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए भी अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" मै नहीं जानता कि आप ईश्वर है या अल्लाह,
परन्तु आप जो भी है इस सम्पूर्ण जगत के पालनहार और सर्व-समर्थ है
अतः इस जीवन नैया की पतवार अब आपको सौंपता हूं
इसे अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" "हे दीनदयालु" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपना समस्त अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
ध्यान रहे कि -"सबका मालिक एक है"
अर्थात ईश्वर एक है
परमात्मा की *शरणागति* की योग्यता हमें तभी मिलेगी
जब हम अपने ज्ञानाभिमान से शून्य होंगे।
क्यों कि भिछा उसी पात्र में डाली जाती है
जो ख़ाली होती हैं।
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना जीवन में कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता
क्यों कि
हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ये परमात्मा से बेहतर और भला कौन जान सकता है।
_/\_
सादर सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
।।जय श्री हरि।।