भाग .13
"प्रभु जी के द्वारा शरणागत वत्सलता का परिचय देना"
मेरे प्यारे दोस्तोँ जैसा कि पिछले भागोँ मेँ बता चुका हूँ विचित्र ढँग से स्वयँ से ही स्वयँ के जीवन का शर्त हारने के बाद मुझे आत्महत्या के बदले निःस्वार्थ सेवा का सँकल्प लेना पड़ा ।
क्यों कि भगवद् प्रेरणा से मुझे आत्महत्या के बजाय
मैं सत्संग विहीन अभी तक श्री भगवान की लीलाओं से अनजान था।
परन्तु अब मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि
कोई पराशक्ति ही है जो जैसा चाहता है मैं और मेरे प्रति अन्य लोग वैसा ही सोचते और क्रियाएं करते हैं।
इस कारण मुझमेँ ये जानने की जिज्ञासा प्रबल हो उठी थी कि
"मैं" मैं नहीं तो मैं कौन हूं ?
"कौन है जो मुझे कठपुतली की तरह नचा रहा है ? "
कहीं भूत-प्रेत तो नहीं है?
भूत-प्रेत के होने की आशँका मिटाने के लिए मेँहदीपुर के बाला जी धाम पर भी गया ।
परन्तु भूत-प्रेत होने का कोई लच्छण प्रकट नही हुआ ।
🙏🙏🙏
अब लीलाधर ने मुझे स्वयं को जानने का अवसर प्रदान करना आरम्भ कर दिया था
सोमवार का दिन था । मेरा साप्ताहिक अवकाश था ।
उन दिनोँ पँजाब केशरी नामक अखबार मेँ धर्म-कर्म नाम से 4 पेज अलग से आया करते था
उस दिन भी उन पेजोँ को नाई की दुकान पर बैठा पढ़ने लगा ।
सबसे ऊपर ही जगजीत सिँह एडवोकेट का एक लेख छपा करता था शीर्षक था "गीता क्रान्ति" ।
उस समय मैँ "भगवद गीता" के बारे में बस इतना ही जानता था कि भगवद् गीता भगवान से संबंधित कोई गाना (भजन) आदि है
कौतूहल और जिज्ञासावश उस लेख को पढ़ने लगा ।
अभी कुछ ही लाइन पढ़ा था कि अचानक चौँक पड़ा । क्योँ कि उस लेख मेँ उसी प्रार्थना की महिमा का वर्णन था
जिसे मेरी माता जी ने मुझसे बचपन में एक लोटा जल गिराते हुए करवाया था
जिसे मैने मँदिर मेँ डेढ़ वर्ष पूर्व पुनः किया था ।
वो प्रार्थना कुछ और नही
समर्पण अर्थात "प्रभु शरणागति" के बारेँ मेँ ही लिखा गया था ।
अच्छी तरह याद नही परन्तु कुछ इस तरह लिखा गया था कि - "जो भक्त स्वयँ को प्रभु के प्रति समर्पण कर देता है । ऐसे शरण मेँ आए भक्त को प्रभु जी काम ,क्रोध , लोभ ,मोह और अहँकार से उबार कर निष्पाप करते हुए शान्ति, मुक्ति प्रदान करते हैं तथा
उसके सम्पुर्ण जीवन का योगछेम स्वयं वहन करते हैं।
मेरे प्यारे दोस्तोँ इतना पढ़ते ही मेरे मन मेँ विचारोँ का ज्वार-भाटा शुरू हो गया ।
सारी आप बीती घटनाऐँ आंखों में चलचित्र की तरह चूमने लगी
और उन हर एक अग्यात घटनाओँ का नामकरण भी होने लगा ।
साथ ही आँखोँ से आँशुओँ का झरना भी फूट पड़ा था ।...
तभी हृदय से निकला
"अरे ये तो उन सभी घटनाओँ के जिम्मेदार "पिता श्री"(प्रभु जी) थे । जो मेरी ही प्रार्थना के अनुसार मेरे लिए जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग "निस्वार्थ सेवा" के प्रति सँकल्पबद्ध करा गये ।"
अब तो भगवद् प्रेम और आनन्द से मैं फूट-फूट कर रो पड़ा था।
🙏
"हे शरणागत भक्तवत्सल आपकी महिमा अपरम्पार है । अपनी शरण मेँ आए भक्त को तुरन्त थाम लेते हैँ । आपकी सदा ही जय हो ।
अगले भाग मेँ मैँ वैराग्य की घटना के विषय मेँ लिखने का प्रयास करूँगा ।
परन्तु हे प्रिय मित्रोँ आपसे प्रेमपूर्वक आग्रह है कि परमात्मा की आश्रय पर तनिक भी सँदेह ना कीजिए और
हृदय से पुकारिए -" हे नाथ हमेँ लीजो अपनी शरण"।
🙏🙏🙏
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की।।
1 टिप्पणियाँ
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।