भाग -15
"प्रभु जी के द्वारा वैराग्य का अनुभव कराने की लीला (भाग-1)"

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मेरे प्यारे दोस्तों प्रभु जी को लीलाधर यूं ही नहीं कहा जाता है

मेरे एक पूर्ण समर्पण और परमात्मा से माता-पिता, गुरु का नाता जोड़ने के साथ ही जन-सेवा की भावना से "जीवन के सर्वश्रेष्ठ सेवा मार्ग पर चलाने की प्रार्थना करने के पश्चात  
प्रभु जी एक महान गुरु की भांति मुझे  दुर्भावनाओ  की माया का दर्शन कराते हुए मानवीय विवशताओं का आभास कराने के पश्चात
मुझसे मेरा "समस्त अहँ-अहंकार - कर्ताभाव -मेरापन -स्वार्थ लूट कर मुझे सकाम से निष्काम कर दिया।

मेरे प्यारे दोस्तों मेरे गुरुदेव "श्री भगवान"  मुझमें एक संत हृदय के निर्माण की पूरी तैयारी कर चुके थे।


उन एक के बाद एक घटित घटनाओँ के कर्ता और कारण जगदीश्वर और उनके प्रति किये गये समर्पण को जानने के बाद
मैँ ईश्वर के प्रति अनन्त श्रद्धा भर गया ।

क्योँ कि मेरे मन मेँ उठ रहे सवालों के हलचल को "भागवत गीता" से ही शान्ति मिली थी 

भगवद् गीता के उपदेशों के माध्यम से ही मुझे भगवद कृपाओं की पहचान मिलने के बाद मेरा हृदय  "श्री भगवान" के प्रति अथाह श्रद्धा भर गया था
अब मेरे सामने प्रश्न था कि "अब तो पिता श्री(जगदीश्वर) ने निःस्वार्थ सेवा को जीवन का सर्वोत्तम मार्ग बता कर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर ली ।
अब मुझे कैसी सेवा करनी चाहिए ?"

कई दिन महीने बीत गये परन्तु धनाभाव मेँ सेवा का कोई मार्ग दिखाई नही दे रहा था ।
जेब खर्च से ही बुजुर्ग व अपाहिजोँ मेँ खाने-पीने की वस्तुओँ को बाँटने लगा ।
परन्तु मन मेँ असन्तोष का भाव ब्याप्त रहता ।
कभी-कभी मैँ बहुत ही बेचैन हो पुकार उठता था - 
"हे मेरे सर्वस्व" मुझे इतना धन और सामर्थ्य दीजिए कि मैँ एक अनाथ आश्रम और एक बृद्धाश्रम बनवा कर आपके दिखाए जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग निःस्वार्थ सेवा को साकार कर सकूँ।"

परन्तु मेरे पिता-गुरुदेव  अर्थात "श्री भगवान" की लीलाएं-कृपाएं बहुत कुछ शेष और पृथक थी ।

अचानक बड़े भैया जी ने गांव से आने के बाद बताया कि वो सँगीता से मेरी शादी तय करके आ गये हैँ मेरा फोटो मँगवाया गया है ।

प्रिय मित्रोँ एक बार फिर बताता चलूँ कि ये वही सँगीता थी जिससे विवाह की कामना लिए मै मन्दिर मेँ पहली बार गया था ।
परन्तु कुछ अन्तर्द्वन्द के कारण सँगीता को माँगने के बजाय स्वयँ को ही परमात्मा के प्रति समर्पित करते हुए उन्हे माता-पिता और गुरू मान कर जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग पर चलाने की माँग कर बैठा था ।

आज मन की ब्यथा विचित्र हो चली थी - तराजू एक छोर पर "सेवार्थ भावना" थी जिसके लिए श्री भगवान ने सँकल्पबद्ध कराया था
 तो
वहीँ तराजू के दूसरे छोर पर सँगीता थी जो मेरी पहली और आखिरी पसन्द थी ।जिनसे मुझे विशुद्ध प्रेम था । जिन्हेँ ठुकराना मेरे लिए अति दुष्कर कार्य था।

अतः बहुत सोचने-विचारने के बाद फोटो खिचवाकर फोटो के पीछे एक पर्ची चिपका दी 
जिसपे लिखा था - "सँगीता अब मैँ विवाह कर के स्वार्थ के बन्धन मेँ नही बँधना चाहता हूँ इस लिए मुझे छमा कर दीजिएगा ।"

फोटो तीन थी पर्ची वाली मध्य मेँ चिपका कर के बड़े भैया को थमा दिया और उन्होने फोटो मनीआर्डर कर भेज दिया ।
लगभग 10 दिनोँ के बाद वहाँ से सँगीता की ओर से जवाब आया कि - "जब शिवप्रसाद ही शादी नही करना चाहते तो हम सँगीता का रिश्ता कहीँ और देख लेते हैँ ।

सच कहूँ तो सँगीता के लिए रिश्तोँ की कमी नही थी क्योँ कि वो बेहद खूबसूरत . समझदार और सुशील थी ।
परन्तु मुझे रिश्ता टूटने का जरा भी गम ना था ।
क्योँ कि मुझमेँ मेरा कुछ भी ना बचा था 
यदि कुछ बचा था
तो वो था केवल जन-सेवा की भावना।

......................शेष अगले भाग मेँ ।

जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
🙏
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की।।



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सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
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।।जय श्री हरि।।