भाग .25
"स्थितप्रज्ञता(स्थिर बुद्धि)"
सप्रेम सादर नमन प्यारे दोस्तोँ व बड़ोँ को सादर चरण स्पर्श ।

हे मेरे प्यारे दोस्तोँ पहले मैँ डरता था कि "श्री भगवान" ने मुझे जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग दिखा कर मुझसे किनारा कर लिया है परन्तु अभी तक प्राप्त अनुभूतियोँ से यही स्पष्ट होता है कि "श्री भगवान" अपनी शरण मेँ आए "शरणागत" को कभी नही त्यागते । 

इसलिए हे प्रिय मित्रोँ प्रभु की "शरणागत" बनोँ । और अपना नर तन सफल सिद्ध करो ।

क्योँ कि ये "जगत माया" इतनी तीछ्ण और प्रभावशाली है कि हमारे अपने स्वयँ के द्वारा अर्जित ज्ञान और हठ योग एक तिनके की तरह उड़ जाती है और हम भी उसी धारा मेँ बहते चले जाते हैँ ।


हे मेरे प्यारे दोस्तोँ मैँ जिन गुणोँ को आप मेँ बाँट रहा हूँ इन्हे "शरणागत" होने के कारण अनुभूति करने के बाद ही लिख रहा हूँ ।
केवल इस आशय मे लिखता हूँ कि आपके हृदय मेँ भी वो प्यास और तड़प जाग्रत कर सकूँ जिसकी "प्रभु आश्रय" प्राप्त करने मेँ परम आवश्यकता होती है ।


मेरे स्वयँ के बर्तमान जीवन मेँ हालात और स्थितियाँ ऐसी हैँ कि यदि मैँ इनके शोक अथवा दुख मेँ डूब जाऊँ तो कभी ना उबर सकूँ ।

परन्तु आशा-निराशा के स्वप्न जाल मेँ फँसने के बजाय केवल अपने कर्तब्य स्वरूप धर्म पर ही ध्यान देता हूँ ।
अपने कर्मफलोँ के प्रति अनासक्त होने के कारण सुख और दुख दोनोँ ही अवस्थाऐँ मेरे लिए सामान्य बनी रहती है ।
ना तो सुख मेँ नाचने को मन करता है और ना ही दुख मेँ अधीरता ही ब्याप्त होती है ।

इसका मुख्य कारण यही है कि किसी दुख के आने पर मेरा ही अन्तर्मन पहले ही मुझसे सवाल कर बैठता है - क्या दुख-शोक करने से अपनी खोई हुई विषय-वस्तु प्राप्त की जा सकती है

तो ऐसे मेँ एक ही उत्तर मिलता है - "नही" ।
यदि नही तो शोकाकुल होने से क्या लाभ ?
हमारे जीवन मेँ सुख और दुख का लगातार आते जाते रहना स्वाभाविक है ।

अब सुख को ही देख लीजिए आप मित्रोँ के मन मेँ कई बार नई मोटर साईकिल , कार ,टीवी ,मोबाइल आदि प्राप्त करने के तुरन्त बाद मेँ कितनी गहरी सुख की अनुभूति हुई थी परन्तु धीरे-धीरे ये सुखद अनुभूति समाप्त हो जाती है । ठीक उसी प्रकार जैसे आग मेँ जल की बूँद ।

और फिर से नये विषय-वस्तुओँ के भौतिक आकर्षण मेँ फँस कर अच्छे-बुरे कर्म करने लग जातेँ हैँ ।

जब मन को इस बात का पूर्ण आभास हो जाता है कि दुख की तरह सुख भी अस्थायी और मिथ्या होती है ।तब मन निरासक्त हो जाता है ।

जिसका आभास अपने वैराग्य काल मेँ ही कर चुका था ।
ऐसे निरासक्त मन को "स्थितप्रज्ञता"कहतेँ हैँ ।
स्थितप्रज्ञ मन वाले की बुद्धि स्थिर हो जाती है जो किसी भी भावना के आवेग से खँण्डित नही होती ।

जगतगुरू "श्री भगवान" ने "गीता" मेँ बताया है कि बुद्धि के स्थिर होने पर मनुष्य का अपने परमात्मा से योग हो जाता है ।

इसी कारण प्रभु जी ने "ध्यान योग" पर भी जोर दिया । परन्तु शरणागति पर विशेष जोर दिया है ।
क्योँ कि "प्रभु आश्रय" के बिना हमारा कोई भी कार्य सिद्ध नही हो सकता ।

प्रिय मित्रोँ "परम आनन्द" किसे कहतेँ हैँ ये तो मैँ नही जानता परन्तु प्रभु प्रेम मेँ कभी अश्रुपात करते तो कभी बिलख-बिलख कर रोते तो कभी विपरीत परिस्थितियोँ के होते हुए भी भी आनन्द से भावविभोर ,मस्त होकर झूमते देखा है ।

ऐसे पलोँ के बदले मेँ मैँ प्रभु पर अपना सर्वस्व हार कर भी नही चुका सकता ।

धन्य हैँ प्रभु "शरणागत भक्तवत्सल" जो अपने शरण मेँ आए शरणागत को कभी नही ठुकराते हैँ ।

जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपनी निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।

।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।