भाग .24

"प्रभु कृपा(शरणागति से उपजे भाव) "

सादर सप्रेम प्रणाम मेरे प्यारे मित्रोँ ।

प्यारे मित्रोँ कम्पनी मेँ प्रवेश किये अभी कुछ ही महीने हुए थे 
अपने विचित्र किन्तु प्रभु प्रदत्त गुणोँ के कारण लोगोँ का चहेता बन चुका था ।

वैराग्य के लोप होने के बाद मुझमेँ अनगिनत बदलाव आ चुके थे । 
जिन्हे मैँ स्वयँ भी पहचानने मेँ असमर्थ था क्योँ कि अभी तक मैँ सत्सँग से पूरी तरह अनभिज्ञ और वँचित था ।

बाद मेँ उन अवस्थाओँ का विश्लेषण करने पर इन स्थितियोँ को पाया जैसे कि -

समदर्शिता - 
सभी को एक समान भाव से देखना ।
प्रेम ही प्रेम और अपनापन - मेरे लिए ये सँसार प्रेममयी हो चुकी थी ।

क्योँ कि काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह आदि अवगुणोँ को अच्छी तरह पहचानता और जानता था कि  दोष किसका है ? 
मनुष्य का (जो हर पल भावनाओं-दुर्भावनाओं के अधीन अर्थात विवश रहता हैं)
या 
उन दुर्भावनाओँ का (जो बड़े से बड़े ज्ञानियों के विवेकशीलता का हरण करके उन्हें अपना गुलाम बना देती है।)


स्थिर बुद्धि(एकाग्रता) - 
वैराग्य की अवस्था मेँ हमारी बुद्धि का भटकाव वैसे भी समाप्त हो जाती है । जिस काम मेँ लगा दो उसी मेँ डूबी रहती है ।
वैराग्य के बाद भी बुद्धि की स्थिति जस की तस बनी रही ।


कर्तब्य निष्ठा - 
मै भले ही नौकरी करता रहा हूँ परन्तु अपने जिम्मेदारियोँ के प्रति पूर्ण अपनत्व की भावना रही है कभी ये एहसास ही नही होता है कि मैँ नौकरी कर रहा हूँ ।


अनासक्ति भाव -
 जैसा कि पिछले भाग मेँ भी बता चुका हूँ स्वयँ को मानसिक द्वन्द अर्थात मन को दुखी होने से बचाने के लिए किसी भी कार्य के फलोँ के प्रति स्वप्न देखना बन्द कर दिया ।
क्योंकि कर्म फलों में आसक्ति ही हमारे सुख दुख का कारण होती हैं
अनासक्ति के  कारण कर्म के अनुसार फल मिले या ना मिले छोभ और अधीरता हृदय से दूर ही रहता है ।


निष्काम कर्म - 
इसकी महिमा अपार है इस पर जितना भी लिखा जाऐ कम ही होगा । इस लिए अगला पोस्ट इसी के नाम होगा ।

प्रिय मित्रोँ ना जाने क्योँ आत्म प्रशँसा युक्त पोस्ट होने के कारण इन पोस्टोँ मेँ मेरा हृदय साथ नही दे रहा है । जिससे पोस्ट सम्पादन मेँ भी अधिक समय लग रहा है ।
इन आत्मप्रशँसा जनित पोस्टोँ को प्रभु कृपा ही जानिएगा ।
जो केवल "प्रभु के प्रति समर्पण" भावना के कारण ही हैँ ।
अतः आप मित्रोँ से प्रार्थना है कि अब तक लिखे गये सभी भागोँ को समय निकाल कर अवश्य पढ़ेँ ।


अब तक लिखे गये सभी भागोँ को पुनः एक बार फिर से पढ़ कर अपने हृदय मेँ प्रभु शरणागति के बीज अवश्य बोऐँ । और मेरे प्रयास को सार्थक बनाऐँ ।

क्योँ कि

"शरण पड़े बिना निष्फल जीवन ।"

"शरणागति" एक नाव है जिसके खेवनहार स्वयँ जगत के पालनहार होँ तो इस भावनाओँ के सागर से कैसे ना होंगे पार ।

इसलिए निःसँकोच 
"प्रभु आश्रय अपनाऐँ ,
जीवन सफल बनाऐँ ।

जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपनी निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।

।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की।।