भाग .23
"निष्काम कर्म और मौन की शक्ति"
सप्रेम सादर नमस्कार प्रिय मित्रोँ ।
अभी कम्पनी मे लगे कुछ ही महीने बीते थे ।
फिर भी कम्पनी के वर्करोँ के साथ-साथ कम्पनी मालिक का भी चहेता बन गया था ।
ऐसा क्योँ ?
ये मैँ स्वयँ भी ना जान पाता यदि एक मित्र ने मुझसे चिढ़ कर मुझे झिझोड़ा ना होता ।
मुझे झिझोड़ते हुए एक सवाल कर बैठा - "तू इतना मेहनत कर के इतना दिखावा क्योँ करता है ? ज्यादा नही मिल जाऐगा ।"
इससे पहले भी कई लोगोँ ने मेरी कर्मठता पर टोका था
जिसे मैँ मुस्करा कर टाल जाता था ।
परन्तु इस बार मित्र के इस छणिक ब्यवहार ने मुझे आत्ममँथन करने पर विवश कर दिया । कि -
लोग कहते है मैँ बहुत मेहनत करता हूँ परन्तु मुझे इसका अहसाश क्योँ नही होता है ?
इसका कारण मुझे "मौन" ही दिखाई दिया ।
प्रयोगिक तौर पर पाया कि 24 घँटे कार्य करके भी मुझे उतना थकावट नही महसूस होता था जितना आधे घँटे बात-बहस करके हो जाता था ।
वैराग्य के बाद से मैँ अन्तर्मुखी बन चुका था ।
किसी भी तरह की ब्यर्थ की बातोँ और सामाजिकता से विमुखता के कारण मेरा मन शान्तिमय होने के कारण अपनी जिम्मेदारियोँ के कर्म मेँ ही ध्यानमग्न रहता था ।
शायद "मौन" की शक्ति और एकाग्रता ही मेरे कर्मठता के कारण थे ।
जब मित्र के इस सँदेह पर विचार किया कि क्या मैँ अपने कर्मोँ के माध्यम से कोई दिखावा या लालच की भावना से कर्म करता हूँ ?
तो आत्मचिन्तन से अपनेँ कर्मोँ मेँ किसी भी प्रकार के फल की आसक्ति का भाव नही दिखाई दिया ।
अपने कर्मोँ मेँ केवल एक ही भाव देखने को मिला
वो था "निष्काम भाव" से कर्तब्य परायणता ।
जिसके महत्व का ग्यान उस समय मुझे भी नही था ।
ध्यान रखना मित्रोँ अपने कर्तब्योँ के पालन को ही धर्म कहते हैँ ।
और
जब इन्ही कर्तब्योँ का पालन "निष्काम भाव" से करतेँ हैँ तो कर्म फलोँ के प्रति "निरासक्त" रहते है
जिसके कारण हमारा मन सुख-दुख ,भय आदि से सुरछित रहता और अन्ततः हम "मोछ"(मुक्ति) को भी प्राप्त होते हैँ ।
प्रिय मित्रोँ आइये जानेँ कि किस कारण "निष्काम कर्म" मोछ प्राप्ति को सिद्ध करता है ।
"जगत गुरू भगवान श्री कृष्ण" ने गीता मेँ बताया है कि - "सकाम भाव" अर्थात फल की आशा को मन मेँ रख कर्म करने वाला प्राणी कर्मोँ के बन्धन मेँ बँध जाता है । जिसके कारण अपने कर्म फलोँ को भोगने के लिए पुनः जन्म लेना पड़ता है ।
इस तरह प्राणीँ बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र उलझा रहता है ।
परन्तु जब वही प्राणीँ "निष्काम भाव" से अपने कर्तब्योँ को अपना धर्म मानकर करते हुए अपने कर्मोँ को परमात्मा को समर्पित कर देता है तो कर्म बन्धन से मुक्त रहता है । और मोछ को प्राप्त करता है ।
प्यारे दोस्तोँ आज यदि सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी आप बीती लिख रहा हूँ तो इसके पीछे एक ही भावना है ।
वो है "निष्कर्मता" जनित निःस्वार्थ सेवा की भावना ।
जो कि "श्री भगवान" की इच्छा से ही जानिए ।
क्योँ कि मेरा अनुभव कहता यदि कोई मनुष्य कितना ही पापी क्योँ ना हो
यदि सच्चे भाव से प्रभु से "शरण याचना" करता है तो प्रभु जी तत्काल उसे अपनी शरण मेँ लेकर पाप मुक्त कर दुर्लभ ग्यान की स्थितियाँ और परम शान्ति प्रदान करतेँ हैँ ।
इस लिए मैँ हर बार की तरह यही कहूँगा - "शरणागति अपनाइए ,जीवन सफल बनाइए ।"
प्रभु जी आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।
।।ॐ नमः शिवाय्।।
।।जय माता की।।
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