भाग .21

"श्री भगवान के द्वारा निष्काम कर्म योग का अभ्यास कराना"
भाग.3

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आपके जीवन में शान्ति,मुक्ति, भक्ति (विशुद्ध प्रेम) और आनन्द हो यही मेरा कर्त्तव्य है,
यही मेरी भगवद पूजा है।

प्रिय मित्रोँ "परम वैराग्य" की अवस्था के बाद काल की गति के अनुसार धीरे-धीरे मुझमेँ फिर से राग (आसक्ति) पनपने लगी ।

और आसक्ति जनित मानसिक द्वन्द(दुख) भी ।

अब क्योँ कि मैने अपने हृदय मेँ अशीम परिवर्तन का भी आभास किया था

जिसके फलस्वरूप 
मेरा हृदय किसी भी तरह का विकार ग्रहण करने के तैयार नही था ।

इन आसक्ति जनित मानसिक द्वन्दोँ अर्थात दुखोँ से मुक्ति पाने के लिए मैने अपने हृदय मेँ जल रही आशा-निराशा के दीपक को ही बुझा दिया ।

परन्तु प्रयास करना नही छोड़ा । क्योँ कि प्रयास करना हर एक प्राणी का धर्म है ।

फल की आसक्ति त्यागने के साथ ही मानसिक पीड़ा का आभास भी पूर्णतया समाप्त हो गया ।

प्यारे दोस्तोँ इस अनुभव का सम्बन्ध पति-पत्नी के बीच के सम्बन्धोँ पर आधारित था इस लिए इसे पूरी तरह से ब्यक्त करने मेँ असमर्थ था ।

प्यारे दोस्तोँ इस बात का हमेँ सदैव ध्यान रखना होगा कि
हमारे जगतगुरू श्री भगवान योगेश्वर ने भागवत गीता मेँ कहा है । कि -
"कर्मफलोँ की आसक्ति को त्याग कर अपने कर्मोँ को अपना धर्म मान कर किए जाए ।"

पहले तो हम ये जान लेँ कि धर्म क्या है ?

जैसे कि माता-पिता ,पत्नी और सन्तान... आदि के प्रति हमारी जिम्मेदारी ,हमारा उत्तरदायित्व हमारी कर्तब्य परायणता ही धर्म कहलाती है ।

कर्मयोग के अनुसार -
यदि हम अपने कर्तब्योँ को फल की आशा से मुक्त हो अपना धर्म मान कर करते हुए अपने कर्मो को परमात्मा को समर्पित कर देतेँ हैँ तो ऐसे मेँ हम दुख-सन्ताप से बचने के साथ ही कर्म बन्धन से भी मुक्त रहते है । 

कर्मबन्धन अर्थात हमारे पाप और पुन्य ही हमारे मोछ (मुक्ति) मेँ बाधक हैँ ।

इसी लिए हमारे जगदगुरु ने निष्काम कर्म योग अपनाने के लिए कहा है ।

इसी निष्कर्मता की भावना को स्वाभाविक रुप मेँ अपने अन्दर पा कर मैँ स्वयँ भी हैरान रह गया ।

जिस पर हम अगले भाग मेँ चर्चा करेँगे ।

जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।

।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।


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*भगवत प्रसाद*

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।