भाग .20

"श्री भगवान के द्वारा निष्काम कर्म योग का अभ्यास कराना"
भाग.2

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सादर सप्रेम नमन मेरे प्यारे दोस्तोँ ।
प्यारे दोस्तोँ एक अनुभव तो मैँ भूल ही रहा था ।
वो ये कि जिन दिनोँ मुझे ये ज्ञात हुआ था कि इन घटनाओँ के पीछे "जगतगुरू" का हाथ है तो मैँ अक्सर भाव-विभोर हो अपनी कल्पनाओँ मे "श्री भगवान" का चित्रण कर बातेँ करता और प्रश्न भी पूछता रहता था ।
मेरे लिए हैरानी की बात थी कि उसका सटीक जवाब भी मिलता था ।
ऐसे मेँ मैँ स्वयँ को भी टटोलता था कि कहीँ ऐसा तो नही कि ये जवाब(उत्तर) मेरे ही दिमाग की उपज तो नही
जिसका सँग्रह भूतकाल मे मेरे दिमाग मेँ पहले ही कर रखा हो ।
परन्तु आश्चर्य से भाव विभोर हो "श्री भगवान" के सम्मुख नतमस्तक हो जाता था
क्योँ कि उस समय मैँ ये भी नही जानता था कि आखिर सत्सँग मेँ होता क्या है ।
एक बार कम्पनी से लौटते समय एक सत्सँगी पाँडाल को देख कर जानने की जिग्यासा भी हुई कि "आखिर सत्सँग मेँ होता क्या है ।"
परन्तु अफसोस पाँडाल मेँ पहुँच कर पता चला कि सत्सँग खत्म कुछ लोग माला और लाकेट बेच रहे थे ।
उन्ही दिनोँ मे विवाह से पूर्व "जगदीश्वर" से दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध मेँ निःस्वार्थ भाव से एक माँग भी की थी
जिसे आज तक पूरा होते देख कर "जगदीश्वर" के प्रति भावुक हो जाता हूँ ।
उन्ही दिनोँ की बात है मुझमेँ ईश्वर के प्रति जिग्यासा भाव की तीब्रता देख कर एक सज्जन भाई ने अपने श्री गुरू का बखान करते हुए मुझे भी शिष्यत्व लेने की प्रेरणा और सलाह दी ।
अगले दिन प्रातः काल मैँ बड़े ही उत्सुकता से वहाँ के लिए घर से निकल पड़ा जहाँ पर गुरू जी आऐ हुऐ थे ।
चौराहे पर खड़ा आटो का इन्तजार कर ही रहा था तभी मेरे अन्तर्मन से आवाज आई - "शिवप्रसाद" क्या तुम्हे अपने गुरूदेव पर भरोसा नही है । क्या ये तुम्हारा अपने गुरूदेव पर अविश्वास नही है ।
अन्तर्मन के इस आवाज पर मैँ चौराहे से ही वापस घर आ गया ।
आज मैँ अपने गुरूदेव "श्री भगवान" को लाख-लाख धन्यवाद करता हूँ जिन्होने अपने इस शिष्य को , अपने इस पुत्र को हृदयाघात से बचा लिया । क्योँ कि ...
वो उस सज्जन भाई के गुरू "आशाराम बापू" थे ।
प्यारे दोस्तोँ जिस समय अपने अन्दर वैराग्य को घटते और राग (आसक्ति) को बढ़ते हुए देख रहा था
उन्ही दिनोँ की बात है
मैँ साइकिल चलाता हुआ कम्पनी जा रहा था अपने वैराग्य छरण की स्थिति का अवलोकन करते हुए भावुक हो कर रोते हुए "श्री भगवान" से पूछने लगा कि " हे पिता श्री" ये मुझे क्या हो रहा है मै वैरागी से फिर रागी बनता जा रहा हूँ
तभी मेरे मन के काल्पनिक चित्रण "श्री भगवान" ने उत्तर दिया - "बेटा अभी तो बहुत नीचे तक जाओगे ।"
तब से मैँ स्वयँ को एक दर्शक की भाँति देखने लगा ।
क्योँ कि अपने इस अन्तर्मन की आवाज को पहले भी सत्य के रुप मेँ साकार होते हुए देखता आया था ।
प्यारे दोस्तोँ अब आप ही बताऐँ इन अनुभवोँ से क्या निष्कर्ष निकालूँ - "घट-घट मेँ बसे हैँ राम ।"
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।

।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।https://prabhusharanagti.blogspot.com/?m=1