भाग -19
"श्री भगवान के द्वारा निष्काम कर्म योग का अभ्यास कराना"
(भाग-1)

🙏
मेरे प्यारे मित्रोँ अब तक 18 भागोँ मेँ काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,अहँकार ,और वैराग्य की घटनाओँ को आप मित्रोँ मेँ बाँट चुका हूँ
ये भावनाएं कुछ और नही इस संसार में व्याप्त माया का ही रूप है
 हमारा जीवन इन्हीं भावनाओं में ही डूबते हुए बीत जाता है
हमारे समस्त बुरे कर्मों में इन्हीं भावनाओं का ही मुख्य योगदान होता हैं।

जिनके माध्यम से "श्री भगवान" ने ये ग्यान प्रदान किया कि - कोई इन्सान बुरा नही होता है ये तो काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह और अहँकार आदि जैसी बुराइयाँ हमेँ बुरा बनने को विवश कर देते हैं
क्योंकि
यह भावनाएं हमारे वैचारिक क्षमता अर्थात विवेकशीलता को शून्य कर देते हैं।

जिनसे सुरछित रहने का सर्वोत्तम और सरलतम मार्ग मैने "परमात्मा की शरणागति" ही अनुभवों के रूप में देखा और पाया है ।

आखिर हमारे "जगतगुरू" ने भागवत गीता मेँ यूँ ही नही कह दिया -
"सर्वधर्मान परित्यज्ये ,
मामेकं शरणं ब्रिज ।
अहँत्वा सर्वपापेभ्यो ,
मोछश्चामि माशुचा ।

अर्थात - सभी धर्मोँ और भेदोँ को भुला कर केवल मेरी शरण मेँ आ जाओ ।
मैँ तुम्हारे सभी पापोँ का नाश करके तुम्हे शाश्वत शान्ति और मोछ प्रदान करूँगा ।
अभी तक मैने जो भी बताया वो केवल ग्यान प्रदान करने के विषय मेँ बताया है । अब आगे मोछ मार्ग और शाश्वत शान्ति के अनुकूल जो भाव स्वयँ मे देखा है उन्हे आप स्वजनोँ के समछ रखने का प्रयास करूँगा ।
इसलिए हे प्रिय मित्रोँ तर्क-वितर्क के जाल को तोड़ कर निःशँक हो प्रभु जी से आश्रय मेँ लेने की पुकार करेँ ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान"
अपनी पसँदीदा और योग्य जीवन सँगिनी से विवाह होने के बाद भी वैराग्य अवस्था के दौरान मैँ अक्सर "सेवार्थ भावना" के लिए तड़पते हुए रो पड़ता था ।
मुझे ऐसा लगता था कि "श्री भगवान" ने मुझमेँ ग्यान की ज्योति जला कर और निःस्वार्थ सेवा का सँकल्प करा कर जीवन का सर्वश्रेष्ठ पथ प्रदर्शित कर अपने योगदान से निर्वृत्ति ले ली हो ।
और मैँ अग्यानी उनके बताऐ हुए मार्ग का अनुशरण करने के बजाय स्वार्थ रूपी विवाह बन्धन मेँ बँध कर बहुत बड़ा अपराध कर बैठा ।
इन विचारोँ के आते ही मैँ ब्याकुलता से रो पड़ता था और अधीर हो कर पुकार उठता था - "हे पिता श्री" यदि मैने विवाह कर के "गलती" की हो तो मुझ अग्यानी को छमा करते हुए "सेवा मार्ग" का पथिक बनाइये अन्यथा मृत्यु दे दीजिए ।
धीरे-धीरे मैँ वैरागी से फिर रागी बनता जा रहा था जो विषय मुझे पूर्णतया रसहीन लगते थे अब उनमेँ रस (आसक्ति) की अनुभूति होना शुरू हो गया था । जिसमेँ हमारी देवी जी का बहुत बड़ा हाथ था ।
निराशक्ति से आसक्ति की ओर स्वयँ को जाते हुए भी देख कर कभी-कभी इस भय से ब्याकुल हो जाता था कि अवश्य ही "जगदीश्वर" ने मुझसे नाराज हो कर मेरा परित्याग कर दिया है ।
परन्तु मुझे क्या पता था कि "श्री भगवान" मुझे कर्मयोगी की अनुकूलता प्रदान कर रहे थे ।.....
अगले भाग मेँ फिर मिलेँगे।
🙏
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना प्रेममयी निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की।।





🙏🙏🙏
मन की शांति की 100% गारंटी इसे करके अवश्य देखिए - 



सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम्  परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
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