भाग .18
"ईश्वर" ,"अहँकार"और "शरणागति"

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हे मेरे प्यारे दोस्तोँ ये आप बीती घटनाऐँ जो मैँ आप लोगोँ को बता रहा हूँ ये केवल और केवल जनकल्याण की भावना से ही लिख रहा हूँ ।
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मेरे एक प्यारे भाई ने बताया कि जगदीश्वर की शरणागति केवल शुद्ध चित्त और अहँकार रहित निर्विकारी मनुष्य को ही प्राप्त हो सकती है
वास्तव में यह सत्य भी यही है कि
परन्तु मेरा अनुभव है कि
प्रभु जी अच्छे-बुरे सभी के लिए सम भाव रखते हैँ
क्यों कि कोई भी मनुष्य बुरा नहीं होता है
बुरी तो काम,क्रोध,लोभ, मोह और अहंकार की भावनाएं होती है
जो हमें प्रति-पल कठपुतली की भांति नचाया करतीं हैं।

अतः प्रभु जी उन सभी को अपनाते हैँ जो उनसे हृदगत शरण में लेने की प्रार्थना करते हैैं।

आप बीती प्रभु लीलाओं को आगे बढ़ाने से पहले ये बताने का प्रयास करता हूँ कि
प्रभु से शरण मेँ लेने की हृदयगत पुकार के लिए कैसा समय सर्वोचित और कारगर सिद्ध होगा ।

ये तो आप सभी अच्छी तरह जानते है ईश्वर और हमारे बीच अहँकार की दीवार खड़ी होती है

अहँकार की ये दीवार प्रकृति ने हर मनुष्य को प्रदान की है ।
किसी मेँ मोटी और टिकाऊ अहँ ... तो किसी मेँ पतली और कमजोर ।
कई लोगों में अहंकार इतना ज्यादा होता है कि वो भगवद् अवतारों में भी बुराई देखते और गाली तक देने से नहीं चूकते हैं।
क्यों कि अहंकार अपने मात्रा के अनुसार मनुष्य को बुद्धिहीन और विवेकहीन बना देता है

हर मनुष्य के जीवन मेँ ऐसे भी पल आते-जाते रहते हैँ जब ये अहँ की दीवार कैसी भी हो भरभरा कर टूट और बिखर जाती है
हलाँकि ये कुछ समय बाद ये स्वयँ ही पूर्ववत भी हो जाती है ।
इसी अहँ की दीवार के टूटने के बाद और पुनर्निमाण के पहले का समय ही वो बेशकीमती समय है जिसमेँ आपकी हृदयगत पुकार परमात्मा तक पहुँचती है ।

आइए जानेँ ये अहँकार की दीवार कब-कब टूटती है -

जहाँ तक मेरा अन्दाजा है ये अहँकार बुद्धि ,धन , रुप और बल से जनित प्रसंशा-आत्मप्रशँसा से प्रकट होता है ।
चापलूसोँ से भी हमेँ सावधान रहने की परम आवश्यकता है । क्योँ कि ये अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु हमारी सच्ची-झूठी प्रसँशा कर-कर के हमारे अहँकार को मजबूत और टिकाऊ बना देते हैँ ।
1. प्रायः जब हम अत्यधिक बीमार पड़ जाते हैँ
या
2. जब कोई आर्थिक हानि उठानी पड़ जाती है ।
या
3 . किसी अपने प्रिय नजदीकी के द्वारा विश्वासघात किए जाने पर ।
4 . इसी तरह के और भी कई शुभ अवसर हमारी जिन्दगी मेँ आते ही रहते है जब हम स्वयँ को अति दीन , हीन और तुच्छ समझने लगते हैँ ।

हमारे भीतर दीनता का भाव आने लगता है जो हमारे अहँ को पिघला कर पानी-पानी कर देती है ।

मेरे प्यारे दोस्तोँ अपनी ऐसी ही मानसिक अवस्था का लाभ उठाते हुए
हमेँ सच्चे हृदय से उस सर्वब्यापी परमात्मा से शरण मेँ लेने की पुकार करनी चाहिए ।
इस प्रार्थना मे जितनी अधिक गहरी श्रद्धा और विश्वास होगी सफलता की उतनी अधिक आस होगी ।
क्योँ कि ये सर्विदित है - "विश्वास मेँ ही ईश्वर का वास है ।"
इसी लिए मैँ बार-बार कहता हूँ दिल से पुकारो ,निश दिन पुकारो
"हे जगदीश्वर , हे ब्रम्हाण्ड नायक ,हे मेरे सर्वस्व मुझ पातक पर दया कीजिए ।
हे मेरे नाथ मुझे अपनी चरण-शरण मेँ लीजिए .....।
🙏
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना अमृतमय आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की॥


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सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी वोभावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
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।।जय श्री हरि।।

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