भाग .17
"प्रभु जी के द्वारा वैराग्य की स्थिति प्रदान करना"

🙏
मेरे प्यारे दोस्तोँ "श्री भगवान" के द्वारा प्रदान किए गये इन अनुभवोँ को आप मेँ केवल इस लिए बाँट रहा हूँ जिससे आप मित्रगण भी इन अनुभवोँ से प्रेरणा पाकर अपना अहँ त्याग स्वयँ को सर्वशक्तिमान परमात्मा की शरणागत कर सकेँ ।
क्योँ कि
 शरणागत होने के बाद जगदीश्वर हमारे पाप-ताप हरण कर हमेँ वो उच्चतम स्थितियाँ प्रदान करतेँ हैँ 
जिन्हे प्राप्त करने के लिए हमारे कई जन्म भी कम पड़ जाते हैँ । जो हमेँ हमेँ अन्ततः प्रभु के परम धाम की ओर ले जाती है ।

इस लिए हे प्रिय मित्रोँ मेरे प्रयास को ब्यर्थ ना जाने दीजिएगा । और प्रभु के प्रति शरणागति के भाव को आत्मसात कीजिएगा ।

भाग 16 के अन्त मेँ आप लोगोँ को बताया था कि एक ही रात मेँ मेरी मनोदशा इस कदर बदल गई जैसे कोई 5-6 साल का बालक हो ।
इसे मैँ अपना 20 वर्ष की अवस्था मेँ पुनर्जन्म मानता हूँ ।
अपनी इस अवस्था मेँ मुझे परम शान्ति और परम आनन्द की अनुभूति हो रही थी ।
मन मेँ किसी तरह की आशा-निराशा और कामना का भाव नही था ।
 कोई भी लालशा ,कोई भी परिस्थिति मेरे मन को ब्यथित कर पाने मेँ अछम थी ।

अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया था कि अब मेरे जीवन की बागडोर सर्वशक्तिमान सर्वसमर्थ सर्वेश्वर के हाथोँ मेँ है जिसका परिणाम हर दृष्टि से सर्वोत्तम ही होगा ।

एक विशेष बात यह थी कि 
उस दौरान भले ही परम वैराग्य की अवस्था मेँ स्थित था 
मन मेँ तृष्णा ,विषय-वस्तुओँ के प्रति आसक्ति(राग) नही था 
फिर भी कार्य छेत्र मेँ अपने कर्तब्योँ के प्रति पूर्ण निष्ठावान था । वो चाहे घर का हो या फैक्टरी का ।

प्रिय मित्रोँ यदि हम अपने मन को वैरागी बना लेँ तो हमारे भीतर सुख और दुःख के भाव ही जन्म ना ले पाऐँगे ।
वैराग्य का अर्थ है - वै= बिना , राग=आसक्ति (कामना)

"राग" -    जब हमारा मन किसी विषय-वस्तु के प्रति आकर्षित हो कर उसे पाने की कामना जन्म लेने लगती है तो 
इसी अवस्था को "आसक्ति" अर्थात राग कहतेँ हैँ ।
ये आसक्ति जितनी अधिक तीव्र होती है हम उतना ही धीरज और धर्म खोते जातेँ हैँ और अन्ततः हम पतन के मार्ग पर भी चल पड़तेँ हैँ । जहाँ पछतावे के अतिरिक्त कुछ नही बचता ।

"वैराग"-  जब हमारी बुद्धि को सदैव इस बात का ध्यान रहे कि इस नश्वर संसार में धन ऐश्वर्य मान सम्मान स्थितियां परिस्थितियांआदि सब कुछ दे दिया के पश्चात समाप्त हो जाता है अर्थात उनका कोई मोल नहीं होता है
यहां तक कि हमारे समस्त रिश्ते नाते भी छूट जाते हैं समाप्त हो जाते हैं
ऐसी स्थिति में हमारा कर्म ही हमारा मूल धन होता है
जो कि हमारे देह त्याग के पश्चात भी हमारे साथ जाता है

मेरे प्यारे दोस्तों ऐसी ही मनोदशा में हमारे  मन में वैराग भाव का उदय होता है
जिसके कारण हम केवल धर्म अर्थात कर्तव्य मार्ग पर ही चलने लगते हैं।
क्योंकि अपने जीवन के संपूर्ण दायित्वों, जिम्मेदारियों का पालन ही हमारा धर्म होता है
ऐसी दशा में हम अपने समस्त कर्म धर्म अधर्म की तुला पर तोल कर ही करते हैं।


इसी वैराग्य स्थिति मेँ ही सँगीता से मेरा विवाह भी सम्पन्न हुआ ।
विवाह होने तक मैँ इसी उम्मीद मेँ था कि मेरे सर्वस्व "श्री भगवान" विवाह मेँ अवश्य ही कोई विघ्न डालेँगे ।
परन्तु
 विवाह निविघ्न सम्पन्न होने के बाद मेरे मन मे असमन्जस युक्त एक प्रश्न उठने लगा कि 
अब जीवन को सेवार्थ सिद्ध कैसे करूँगा ?
अब तो पारिवारिक आवश्यकताओँ की पूर्ति मेँ ही जीवन यूँ ही स्वार्थ मेँ बीत जाऐगा ।.........

🙏
मेरे प्यारे दोस्तोँ अगले भाग मेँ फिर मिलेँगे
परन्तु 
आप से यही उम्मीद करता हूँ कि आप मेरे इस प्रयास को ब्यर्थ नही जाने देँगे ।
स्वयँ के साथ-साथ अपनेँ बच्चोँ वा सगे-सम्बधियोँ मेँ भी ईश्वर परायणता के बीज बोऐँगे ।
क्योँ कि
 इसी बीज से निकले वृछ की छाया मेँ हमेँ परम आनंद ,शान्ति और मुक्ति की प्राप्ति होती है ।

🙏
।। जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।