भाग .5
"प्रभु जी के द्वारा आत्मशुद्धि का संकल्प और लोभ की भावना का दर्शन कराना"
"प्रभु जी के द्वारा आत्मशुद्धि का संकल्प और लोभ की भावना का दर्शन कराना"
मेरे प्यारे दोस्तोँ शरणागति की महिमा से मैँ पूरी तरह अन्जान था ।
मन्दिर मेँ हृदयगत प्रार्थना किया था तो प्रभु लीला से कैसे वँचित रह सकता था ।
ये लीलाऐँ भी ऐसी कि एक या दो होती तो इत्तिफ़ाक मान कर नजर अन्दाज कर देता ।
अचानक ही घर मेँ कम्पनी मेँ मुझे जानने वाले सभी लोग मेरी टूट कर प्रशँसा करने लगे ।
कोई गाँधी तो कोई सीधे आदि नामोँ से सम्बोधित करने लगे ।
अपने प्रति लोगोँ का प्रेम देख कर मुझे स्वयँ को दोषरहित बनाने की प्रेरणा मिली जिसके परिणाम स्वरूप मैने सँकल्प ले लिया कि स्वयँ को पूरी तरह दोषरहित बनाऊँगा ।
"श्री भगवान" ने प्रथम लीला लोभ(लालच) की दिखाई ।
दिल्ली मे किराए के मकान मेँ रहता था । एक पड़ोसी जिनके घर पर फोम के तकिए आदि बनाऐ जाते थे ।
सैलरी कम होने के कारण भाई ने काम छुड़ा दिया था ।
एक दिन अकस्मात ही पड़ोसी की माता जी ने घर बुला कर टाँड पर चढ़ कर कोई सामान ढूँढ़ने को कहा सामान का तो पता नही चला परन्तु कुछ छोटी चमकीली वस्तु जरूर दिखाई दिया जिसे मैने अपने अन्तर्मन की आवाज को अनसुना करके कौतुहल वश जेब मेँ रख लिया ।
बाद मेँ पता चला ये वस्तु नग के नाम से जानी जाती है जो हीरे के समान दिखाई देती है ।
भाई से ही मुझे ये भी ज्ञात हुआ कि बड़े लोग कभी कभी किसी को परखने के लिए ऐसा करतेँ हैँ ।
ये जान कर मुझे बड़ा ही दुख होने लगा ।
मेरा ये दुख तब-तब असीम रूप ले लेता जब-जब पड़ोसी की निगाहोँ मेँ अपने लिए ईर्ष्या और क्रोध के भाव देखता ।
पश्चाताप की अग्नि मेँ कई दिन तक जलता रहा अन्ततः मैने सँकल्प लिया कि "आज से जीवन मेँ कभी भी चोरी नही करूँगा"
प्रिय दोस्तोँ जब हमारे मन मेँ लोभ का भाव उत्पन्न होता है तो हमारा मन स्वयँ के कर्मोँ के प्रति लापरवाह(आलसी) हो जाता है ।
ऐसे मेँ हम अपने अन्तर्मन की आवाज को अनसुना कर जातेँ हैँ ।
इसी लोभ की तीब्रता की स्थिति मेँ हमारी विवेकशीलता पूरी तरह समाप्त हो जाती है ऐसे मेँ हमारे कर्म जानवरोँ से भी बदतर हो जाते हैँ ।
जैसे कि - भाई अपने भाई के खून का प्यासा हो जाता है यहाँ तक कि पुत्र अपने पिता तक की हत्या तक करने से नही चूकते ।
प्यारे दोस्तोँ ईश्वर परायणता से हम ऐसी स्थितियोँ से स्वयँ को कोसोँ दूर रख सकतेँ है ।
इसलिए
पूर्ण श्रद्धा और हृदय से पुकारेँ -
"अब सौँप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथोँ मेँ ,
मै इस जग के हाथोँ मे और जग है तुम्हारे हाथोँ मेँ ।।
अगले भाग .6 मेँ फिर मिलेगे ।
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ का जीवन प्रेम ,शान्ति और खुशियोँ से भर देँ ।
।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।
1 टिप्पणियाँ
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।