ॐ।। ईश्वरीय अनुभव।।ॐ
भाग .3 "की महत्त्वपूर्ण पुनरावृत्ति"
_/\_
ये पोस्ट सभी धर्म-पन्थ के लोगोँ के लिए अति अति महत्वपूर्ण है
यदि हृदय मेँ उतर गई तो परमात्मा की कृपा से आपके जीवन मेँ शान्ति और मोछ शुलभ हो जाऐगा ।
और सत्य(ईश्वर) का बोध होने से पन्थ मतोँ का भेद भी मिट जाऐगा ।
।।निश्छल प्रेम की वेदना बड़ी मीठी और सुहानी होती है
वो चाहे
प्रेमी अथवा प्रेमिका के प्रति हो
या अपने आराध्य के प्रति।।
बात उन दिनोँ की है जब मैँ अध्यात्म से अनभिज्ञ था
अपने प्रेम को विवाह के रूप मेँ साकार करने की चाहत मेँ गली के ही मन्दिर पहुँच गया
सोचा यदि ईश्वर सत्य है तो मैँ पहली बार माँगने जा रहा हूँ
मेरी इच्छा जरूर पूरी करेँगे ।
मन्दिर पहुँचते ही इस शँका ने घेर लिया कि
"ईश्वर सत्य हैँ या अल्लाह ?"
"आखिर सबका मालिक तो एक ही है
जो हिन्दू ,मुश्लिम सभी का पालन पोषण करता है ।"
इस शँकालु विचार के बाद मेरे प्रार्थना का क्रम आगे बढ़ा -
"हे जगदीश्वर मैँ नही जानता कि आप अल्लाह हैँ या ईश्वर ।"
"यदि आप अल्लाह हैँ तो आपकी प्रशन्नता के लिए मैँ कोई विधि अथवा मन्त्र नही जानता ।
केवल इतना ही जानता हूँ सो वही अर्पण करता हूँ "ला इलाह इलल्लाह मुहम्मद उर रसूल अल्लाह"
और
यदि आप भगवान हैँ तो आपके लिए भी बस इतना ही जानता हूँ -
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव विद्दा द्रविणं त्वमेव....."
"हे जगदीश्वर आप अल्लाह हैँ या भगवान मेरे माता-पिता तो हैँ नही इस लिए आज से आप ही मेरे माता पिता हैँ ।"
(हृदय का भाव अत्यन्त सरल और सच्चा होने के कारण तब से आज तक प्रभु जी को माता अथवा पिता श्री ही कहकर बुलाता हूँ )
"हे मेरे माता श्री ,हे मेरे पिता श्री" अब मेरी इस जीवन नइया की पतवार आप के हाथोँ मेँ है अब आप ही सँभालिए ।
मैँ चाहता हूँ मेरी शा....(शर्म के कारण आगे के विवाह से सम्बन्धित शब्द हृदय से ना निकल पाऐ । ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैँ सचमुच मे अपने मम्मी-पापा से अपने ही विवाह की बात करने जा रहा हूँ।)"
एक बार पुनः प्रयास किया परन्तु फिर वही शर्म ... क्योँ कि मुझे यही आभास हो रहा था जैसे सर्वब्यापी जगदीश्वर सम्मुख ही खड़े होँ और मेरे हृदय की पुकार सुन रहेँ है ।
कुछ पलोँ के लिए शान्त हो सोचने लगा कैसे माँगू ?
तभी मेरी अन्तरात्मा मे ये प्रश्न उभरा कि - "शिवप्रसाद" कल जिस विषय वस्तु को श्रेष्ठ मानते थे आज तुम्हारा ज्ञान और अनुभव उसी विषय वस्तु को तुच्छ मान दूसरे विषयोँ को श्रेष्ठ मानने लगा है
ऐसा ना हो कि
आज जो सर्वश्रेष्ठ समझ माँगने आऐ हो कल तुम्हारी बुद्धि और ज्ञान बढ़ने के साथ ही तुम्हे पछतावा ना हो कि "मैने भगवान से माँगा भी तो क्या माँगा ,इससे अच्छा ये माँग लिया होता।"
"और इस बात की क्या गारन्टी कि तुम अपने प्रेम सँगीता को सुखी रख सको , यदि सुखी ना रख सके तो तुम्हारे प्रेम का क्या मोल"
हृदय मेँ ये विचार आते ही मैने विवाह का विचार त्याग दिया ।
सँगीता के अलावा किसी और से विवाह ना करने का सँकल्प पहले ही ले चुका था ।
इस कारण अब मुझे अपना जीवन उद्देश्य रहित निरर्थक दिखने लगा ।
तो सोचा इस जीवन को दूसरोँ की सेवार्थ मेँ लगाने का वर माँग लूँ ।
परन्तु
तभी अहँकार रहित बुद्धि ने फिर तर्क दिया कि-
"हो सकता है जीवन के लिए इससे भी बढ़ कर कोई श्रेष्ठ मार्ग हो"
इसके साथ ही प्रार्थना का क्रम आगे बढ़ा -
"हे पिता श्री" आप मेरे माता-पिता तो हैँ ही आज से मेरे गुरू भी आप ही हैँ ।
मैँ महात्मा गाँधी व अन्य की भाँति महान तो नही बनना चाहता हूँ
परन्तु इतना चाहता हूँ कि
मैँ जीवन के जिस मार्ग पर चलूँ वो जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग हो।
हो सकता है मै उस मार्ग से विचलित होने लगूँ
इसलिए उस पर चलाना भी आपका ही काम है।।"
मेरे प्यारे भाइयोँ-बहनोँ उस समय तो मैँ अपनी इस हृदयगत प्रार्थना को साधारण ही मान रहा था
परन्तु उसके कुछ ही दिनोँ बाद प्रभु जी की उन लीलाओँ का आगाज प्रारम्भ हो गया
जिनसे भवसागर अर्थात दुर्भावनाओँ की भयावहता और मानवीय विवश्ताओँ का पूर्ण आभास भी हुआ।
तत्पश्चात प्रभु जी की एक लीला से मेरे मन का अहँकार टूटने के साथ ये विश्वास तो हुआ ही कि कोई पराशक्ति है जो मुझे सँचालित कर रही है
साथ ही मुझे अपना जीवन बचाने के लिए "निःस्वार्थ सेवा" भाव से जीने के लिए सँकल्प भी लेना पड़ा ।
उस पराशक्ति और लीलाओँ का ज्ञान भी तब हुआ जब श्री भागवद गीता के मुख्याँशोँ सामना हुआ ।
फिर एक लीला से वैराग्य भी हो गया
और
एक बार वैवाहिक जीवन जीने से मना करने के बावजूद उसी वैराग्य अवस्था मेँ सँगीता से विवाह भी हुआ ।
फिर
प्रभु जी ने निष्कर्मता की भावना का अभ्यास भी कराया जो शान्ति और मोछ के लिए के लिए परम आवश्यक है ।
ये तो मुख्याँश ही हैँ प्रभु लीलाओँ के ।
ऐसी कई अनुभूतियाँ कृपासिन्धु करूणासागर ने प्रदान की जिनसे ये ज्ञान प्राप्त होता है कि
यदि कोई पापी से पापी मनुष्य भी क्योँ ना रहा हो
यदि निश्छल ,सरल भाव और अहँकार रहित हो
परमात्मा को अपने जीवन का समस्त भार अर्पण कर देँ तो
प्रभु जी उसके जीवन को निष्पाप कर शान्ति और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर देतेँ हैँ ।
अतः
प्रभु शरण अपनाऐँ ,
जीवन सफल बनाऐँ ।
"शरणागति का अर्थ है अपना अहँ ,अहँकार परमात्मा के श्री चरणोँ मेँ विलीन कर देना।"
प्रभु जी आपको अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
सभी आदरणीय व प्रिय भाई-बहनोँ को सादर सहृदय_/\_प्रणाम् ।
🙏🙏जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की🙏🙏
भाग .3 "की महत्त्वपूर्ण पुनरावृत्ति"
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ये पोस्ट सभी धर्म-पन्थ के लोगोँ के लिए अति अति महत्वपूर्ण है
यदि हृदय मेँ उतर गई तो परमात्मा की कृपा से आपके जीवन मेँ शान्ति और मोछ शुलभ हो जाऐगा ।
और सत्य(ईश्वर) का बोध होने से पन्थ मतोँ का भेद भी मिट जाऐगा ।
।।निश्छल प्रेम की वेदना बड़ी मीठी और सुहानी होती है
वो चाहे
प्रेमी अथवा प्रेमिका के प्रति हो
या अपने आराध्य के प्रति।।
बात उन दिनोँ की है जब मैँ अध्यात्म से अनभिज्ञ था
अपने प्रेम को विवाह के रूप मेँ साकार करने की चाहत मेँ गली के ही मन्दिर पहुँच गया
सोचा यदि ईश्वर सत्य है तो मैँ पहली बार माँगने जा रहा हूँ
मेरी इच्छा जरूर पूरी करेँगे ।
मन्दिर पहुँचते ही इस शँका ने घेर लिया कि
"ईश्वर सत्य हैँ या अल्लाह ?"
"आखिर सबका मालिक तो एक ही है
जो हिन्दू ,मुश्लिम सभी का पालन पोषण करता है ।"
इस शँकालु विचार के बाद मेरे प्रार्थना का क्रम आगे बढ़ा -
"हे जगदीश्वर मैँ नही जानता कि आप अल्लाह हैँ या ईश्वर ।"
"यदि आप अल्लाह हैँ तो आपकी प्रशन्नता के लिए मैँ कोई विधि अथवा मन्त्र नही जानता ।
केवल इतना ही जानता हूँ सो वही अर्पण करता हूँ "ला इलाह इलल्लाह मुहम्मद उर रसूल अल्लाह"
और
यदि आप भगवान हैँ तो आपके लिए भी बस इतना ही जानता हूँ -
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव विद्दा द्रविणं त्वमेव....."
"हे जगदीश्वर आप अल्लाह हैँ या भगवान मेरे माता-पिता तो हैँ नही इस लिए आज से आप ही मेरे माता पिता हैँ ।"
(हृदय का भाव अत्यन्त सरल और सच्चा होने के कारण तब से आज तक प्रभु जी को माता अथवा पिता श्री ही कहकर बुलाता हूँ )
"हे मेरे माता श्री ,हे मेरे पिता श्री" अब मेरी इस जीवन नइया की पतवार आप के हाथोँ मेँ है अब आप ही सँभालिए ।
मैँ चाहता हूँ मेरी शा....(शर्म के कारण आगे के विवाह से सम्बन्धित शब्द हृदय से ना निकल पाऐ । ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैँ सचमुच मे अपने मम्मी-पापा से अपने ही विवाह की बात करने जा रहा हूँ।)"
एक बार पुनः प्रयास किया परन्तु फिर वही शर्म ... क्योँ कि मुझे यही आभास हो रहा था जैसे सर्वब्यापी जगदीश्वर सम्मुख ही खड़े होँ और मेरे हृदय की पुकार सुन रहेँ है ।
कुछ पलोँ के लिए शान्त हो सोचने लगा कैसे माँगू ?
तभी मेरी अन्तरात्मा मे ये प्रश्न उभरा कि - "शिवप्रसाद" कल जिस विषय वस्तु को श्रेष्ठ मानते थे आज तुम्हारा ज्ञान और अनुभव उसी विषय वस्तु को तुच्छ मान दूसरे विषयोँ को श्रेष्ठ मानने लगा है
ऐसा ना हो कि
आज जो सर्वश्रेष्ठ समझ माँगने आऐ हो कल तुम्हारी बुद्धि और ज्ञान बढ़ने के साथ ही तुम्हे पछतावा ना हो कि "मैने भगवान से माँगा भी तो क्या माँगा ,इससे अच्छा ये माँग लिया होता।"
"और इस बात की क्या गारन्टी कि तुम अपने प्रेम सँगीता को सुखी रख सको , यदि सुखी ना रख सके तो तुम्हारे प्रेम का क्या मोल"
हृदय मेँ ये विचार आते ही मैने विवाह का विचार त्याग दिया ।
सँगीता के अलावा किसी और से विवाह ना करने का सँकल्प पहले ही ले चुका था ।
इस कारण अब मुझे अपना जीवन उद्देश्य रहित निरर्थक दिखने लगा ।
तो सोचा इस जीवन को दूसरोँ की सेवार्थ मेँ लगाने का वर माँग लूँ ।
परन्तु
तभी अहँकार रहित बुद्धि ने फिर तर्क दिया कि-
"हो सकता है जीवन के लिए इससे भी बढ़ कर कोई श्रेष्ठ मार्ग हो"
इसके साथ ही प्रार्थना का क्रम आगे बढ़ा -
"हे पिता श्री" आप मेरे माता-पिता तो हैँ ही आज से मेरे गुरू भी आप ही हैँ ।
मैँ महात्मा गाँधी व अन्य की भाँति महान तो नही बनना चाहता हूँ
परन्तु इतना चाहता हूँ कि
मैँ जीवन के जिस मार्ग पर चलूँ वो जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग हो।
हो सकता है मै उस मार्ग से विचलित होने लगूँ
इसलिए उस पर चलाना भी आपका ही काम है।।"
मेरे प्यारे भाइयोँ-बहनोँ उस समय तो मैँ अपनी इस हृदयगत प्रार्थना को साधारण ही मान रहा था
परन्तु उसके कुछ ही दिनोँ बाद प्रभु जी की उन लीलाओँ का आगाज प्रारम्भ हो गया
जिनसे भवसागर अर्थात दुर्भावनाओँ की भयावहता और मानवीय विवश्ताओँ का पूर्ण आभास भी हुआ।
तत्पश्चात प्रभु जी की एक लीला से मेरे मन का अहँकार टूटने के साथ ये विश्वास तो हुआ ही कि कोई पराशक्ति है जो मुझे सँचालित कर रही है
साथ ही मुझे अपना जीवन बचाने के लिए "निःस्वार्थ सेवा" भाव से जीने के लिए सँकल्प भी लेना पड़ा ।
उस पराशक्ति और लीलाओँ का ज्ञान भी तब हुआ जब श्री भागवद गीता के मुख्याँशोँ सामना हुआ ।
फिर एक लीला से वैराग्य भी हो गया
और
एक बार वैवाहिक जीवन जीने से मना करने के बावजूद उसी वैराग्य अवस्था मेँ सँगीता से विवाह भी हुआ ।
फिर
प्रभु जी ने निष्कर्मता की भावना का अभ्यास भी कराया जो शान्ति और मोछ के लिए के लिए परम आवश्यक है ।
ये तो मुख्याँश ही हैँ प्रभु लीलाओँ के ।
ऐसी कई अनुभूतियाँ कृपासिन्धु करूणासागर ने प्रदान की जिनसे ये ज्ञान प्राप्त होता है कि
यदि कोई पापी से पापी मनुष्य भी क्योँ ना रहा हो
यदि निश्छल ,सरल भाव और अहँकार रहित हो
परमात्मा को अपने जीवन का समस्त भार अर्पण कर देँ तो
प्रभु जी उसके जीवन को निष्पाप कर शान्ति और मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर देतेँ हैँ ।
अतः
प्रभु शरण अपनाऐँ ,
जीवन सफल बनाऐँ ।
"शरणागति का अर्थ है अपना अहँ ,अहँकार परमात्मा के श्री चरणोँ मेँ विलीन कर देना।"
प्रभु जी आपको अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
सभी आदरणीय व प्रिय भाई-बहनोँ को सादर सहृदय_/\_प्रणाम् ।
🙏🙏जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की🙏🙏
1 टिप्पणियाँ
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"भगवद शरण(कृपा)" प्राप्ति हेतु
प्रत्येक शब्द महत्वपूर्ण"
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।