ॐ।।जय श्री हरि।।ॐ
भाग .3
प्रिय मित्रोँ इस भाग को ध्यान से एक फिर पढ़ कर देखेँगे तो पता चलेगा जो कुछ मेरे साथ घटित हो रहा था सब जगदीश्वर की ही लीला थी ।
जो अभी समाप्त नही हुई थी ।
सन 1997 मेँ 19 साल की उम्र मेँ मुझे बड़े भाई की साली (सँगीता) से पत्रोँ के आदान-प्रदान मेँ कब प्रेम का अँकुर फूट पड़ा पता ही नही चला ।
प्रेम की शुद्धता ऐसी राधेकृष्णा जैसी ।
केवल इतना जान लीजिए कि मेरे मन की वासनात्मक भावनाऐँ भी सँगीता के स्मरण मात्र से नष्ट हो जाती थी ।
मन हमेशा सँगीता को लेकर ताने-बाने बुनता रहता था ।
एक दिन जब नकारात्मक विचारोँ से हृदय की वेदना असहनीय हो गई तो सोचा क्योँ ना सँगीता को भगवान से माँग कर देखेँ यदि इस सँसार मेँ सचमुच मेँ भगवान हैँ तो पहली बार माँगने जा रहा हूँ इसलिए मेरी ये इच्छा अवश्य पूरी करेँगे ।
कुछ ही समय बाद खाली हाथ ही गली के मन्दिर मेँ पहुँच गया ।
मन मेँ अभी भी दुविधा थी कि मुसलमानोँ के आराध्य अल्लाह सत्य हैँ या मेरे भगवान आखिर पालन-पोषण तो दोनोँ का हो रहा है ।
दोंनोँ हाथ जोड़ कर माँगने का क्रम जारी किया -
"हे जगदीश्वर आप अल्लाह हैँ या ईश्वर मैँ नही जानता । मेरे माता पिता तो हैँ नही । आज से आप ही मेरे माता और पिता हैं ।"
(सम्बन्ध जोड़ते ही सम्बोधित भी करने लगा)
"हे मेरे माता जी ,हे मेरे पिता जी- मै चाहता हूँ कि...। कहते-कहते जुबान शर्म से अटक गई ।
ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैँ सचमुच मेँ अपने माता-पिता से अपनी ही शादी की बात करने जा रहा हूँ अतः कुछ काल तक दुविधा मेँ रहा कैसे माँगूँ ?
फिर माँगने का क्रम शुरू हुआ - "हे माता जी पिता जी आप मेरे हृदय की वेदना तो जानते ही हैँ मैँ चाहता हूँ..." फिर रुक गया परन्तु इस बार ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई मुझे कह रहा है कि - "शिवप्रसाद तुमने तो स्वयँ ही देखा है कि किसी विषय-वस्तु को लेकर जिसे पहले सर्वोत्तम मानते थे आज उसी विषय-वस्तु को लेकर तुम्हारी धारणा बदल गई है । अब उसकी अपेछा अन्य को सर्वोत्तम मानने लगे हो ठीक इसी तरह कल को तुम्हे पछताना ना पड़े कि तुमने भगवान से पहली बार माँगा भी तो क्या माँगा ।"
अन्तर्मन मेँ उपजे इन विचारोँ ने कई सवाल भी खड़े कर दिए जैसे कि -सँगीता से विवाह होने के बाद क्या अपनी इन बुरी परिस्थितियोँ मे सुखी रख सकूँगा ?
सँगीता के सुखी जीवन की कामना ने मन मेँ त्याग की भावना को जन्म दिया । सँगीता के अतिरिक्त किसी अन्य से विवाह ना करने का सँकल्प पहले ही ले चुका था
अतः विवाह का इरादा त्यागते ही मुझे अपना जीवन लछ्य विहीन दिखाई देने लगा ।
तभी विचारोँ का क्रम टूटा और प्रार्थना का क्रम जारी करते हुए कहने लगा - "हे भगवान आप मेरे माता-पिता तो हैँ ही आज से मेरे गुरू भी आप ही हैँ ।
मेरी जीवन नैइया के खेवैइया आप ही हैँ । मै चाहता हूँ जिन्दगी के उस मार्ग पर चलूँ जो जिन्दगी का सबसे अच्छा मार्ग हो ।
सम्भव है मैँ उस मार्ग से विचलित हो जाऊँ अतः उस मार्ग पर चलाना भी आप ही का कार्य है ।"
मेरे प्यारे दोस्तोँ ना मैँने कभी सत्सँग देखा सुना था और ना ही कभी पूजा पाठ किया था इस लिए मुझे क्या पता था कि मँदिर मेँ मैने क्या किया यदि याद रहा तो बस इतना कि स्वयँ के द्वारा जोड़ा गया पिता-पुत्र का रिश्ता अतः तब से मेरे जुबान से भगवान शब्द हट कर "पिता जी" शब्द जुड़ गया ।गुरू का रिश्ता विस्मृत हो चला था ।
अब मुझे क्या पता था कि "ये" हृदय से बनाए गए रिश्ते निभाते भी हैँ ।।.....
।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।