भाग .9
काम(वासना) और अहँकार ।
मेरे प्यारे दोस्तोँ मैंने भगवद् प्रेरणा से स्वयं को मन, वचन, और कर्म से शुद्ध रहने का संकल्प लें रखा था
इस कारण
अपने मन को कामुकता के दोषोँ से पूरी तरह मुक्त करने के लिए बहुत ही बेचैन रहने लगा ।
किसी ने बताया केले के छिलके का जूस पीने से भी काम भावना शान्त हो जाती है ।
अब छिलके का जूस निकलवाने के सँकोच मेँ एकाँत मेँ स्वयँ पर रोते हुए छिलका भी खा जाता था ।
परन्तु "वासना तू ना गई मेरे मन से"।
फिर एक दिन ज्योँतिष की एक किताब मेँ पढ़ने को मिला ।
"तिल विचार"
होँठोँ पर तिल होना - कामी होना ।
मैँ उत्सुकतावश शीशे मेँ अपना चेहरा निहारने लगा ।
एक छोटा सा तिल मिला तो परन्तु होठोँ और ठुड्ढी के मध्य मेँ ।
इससे पहले कभी दिखा नही था इस लिए मुझे पूरा सँदेह इस तिल पर था कि अवश्य ही इसी तिल के कारण मेरा मन मैला हो जाता है ।
फिर तो मैने निश्चय कर लिया अपने चेहरे से तिल को जुदा करने की ।
सूई और शीशा लेकर बैठते ही भाभी माँ ने टोकते हुए पूछ लिया - शिव ये सूई से क्या कर रहे हो ?
मैँ भाभी माँ से कुछ कह तो ना सका परन्तु आँशुओँ से भर आई मेरी आँखेँ बहुत कुछ कहने लगीँ जिसे सफलता से छिपाते हुए आँगन से कमरेँ के एकाँत मे पहुँच कर तिल को सूई से खोदते जा रहा था
साथ ही अपने कामुक मनोदशा पर रोये जा रहा था ।
तब तक तिल को कुरेदता रहा जब तक कि पीड़ा असहनीय ना हो गई ।
इस शल्य क्रिया के बाद से मुझे अपनी मनोदशा पूर्णतया शुद्ध दिखी ।
मैँ काफी हर्षित होने लगा ।
ये सोच-सोच कर फूला ना समाता कि मैने काम(वासना) पर विजय पा लिया ।
परन्तु ये क्या मुश्किल से 5-6 दिन ही बीतेँ होँगे फिर वही मुशीबत फिर वही कामुक विचारोँ की लहरेँ ।
हिम्मत दिखाते हुए चेहरे के उसी जगह को फिर से खोद दिया ।
इस बार और गहराई से ।
दर्द भी पहले से अधिक हुआ । परन्तु उस दर्द के आगे कुछ भी ना था जो मेरे हृदय मेँ अपनी मनोदशा पर था ।
परन्तु इस बार भी स्वच्छ मनोदशा कुछ ही दिनोँ की मेहमान रही ।
अब मुझमेँ फिर से शल्य क्रिया को अपनाने की हिम्मत ना रही ।
स्वयँ को दोषमुक्त करने के प्रयास मेँ महीनोँ बीत गये थे ।
मेरी सारी आशाऐँ धूल मे मिल गई ।
अक्सर इसी सोच मेँ पड़ जाता कि जब मुझ जैसा इन्सान चाह कर भी स्वयँ को दोषमुक्त ना कर सका तो जो इस विषय मेँ प्रयास ही नही करते है उन बेचारोँ की हालत क्या होती होगी ।
पिछले कई महीनोँ से मैँ काफी तनाव मेँ रहा जिसका प्रभाव मुझे अपनी सेहत पर भी दिखने लगा था ।
अतः मैने स्वयँ को छूट देते हुए दृढ़ सँकल्प ले लिया कि - "जब तक ये दोष निगाहोँ तक सीमित रहा तब तक तो ठीक है
परन्तु जिस दिन ये दोष स्पर्श तक आया वो दिन मेरे जीवन का आखिरी दिन होगा ।"
मेरे प्यारे दोस्तोँ मैँ पूरी तरह आश्वस्त था मुझे स्वयँ पर पूरा भरोसा था कि ये दिन कभी आ ही नही सकता ।
परन्तु जगत गुरू , जगतश्रेष्ठ की लीलाओँ से अनभिज्ञ मुझ अज्ञानी को क्या मालूम था कि प्रभु जी की इस लीला का आधार मेरे अहँ का नाश करके जीवन के उस सर्वश्रेष्ठ मार्ग का दर्शन कराना था
जिसकी कामना परमात्मा की शरणागत होते समय की थी ।
अगले भाग मेँ फिर मिलेँगे ।
शराणागत बनिए ,
जीवन सफल कीजिए ।
।।जय जय श्री राधेकृष्णाः।।
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🙏🙏🙏
सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
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