भाग .7
सावधान मित्रोँ मोह भी अन्धा होता है ।
मोह
मन की शांति कैसे पायें,मन को पवित्र कैसे करे,मन की शांति कैसे मिले
सावधान मित्रोँ मोह भी अन्धा होता है ।
भाई की साली (जो सँगीता से बड़ी थी) की शादी होने वाली थी ।
सँगीता भी इसी बहाने मुझे देखना चाहती थी क्योँ कि इससे पहले हम बचपन मेँ ही मिले थे ।
इस बात की भनक मेरे कम्पनी के सहकर्मियोँ को भी लग चुकी थी ।
उन्होने मुझे मेरे सच्चे प्यार का वास्ता देते हुए सँगीता की एक किश(चुम्बन) लेने की कसम दिलाई ।
मैने सहमति मे केवल इतना वादा किया "प्रयास करूँगा" ।
विवाह के निश्चित दिन भाई के ससुराल पहुँच गया ।
बारात आ रही थी परन्तु मैँ शान्ति प्रिय घर की छत पर बैठा शान्ति से उस वादे के बारे मेँ सोच रहा था ।
कि जिसने आज तक किसी लड़की को स्पर्ष तक नही किया वो भला किश(चुम्बन) कैसे ले सकता है । चलो वापस दिल्ली जाकर झूठ-मूठ ही कह दूँगा कि हाँ किश लेकर आया हूँ ।
परन्तु ठिठक गया क्योँ कि एक घटना के माध्यम से झूठ ना बोलने का भी सँकल्प ले चुका था ।
इन्ही विचारोँ मे खोया था तभी अचानक सँगीता अपनी सहेलियोँ के साथ छत पर आईँ ।
चुहलबाजी करते हुए सहेलियोँ ने कहा - "जीजा" कुछ खा-पी लीजिए ।
तभी मैने अपने चँचलता से कहा - "खाया-पिया तो बहुत कुछ परन्तु सब फीका । बस सँगीता का एक किश मिल जाऐ तो होठोँ पर मिठाश आ जाऐ ।
इतना कहते हुए दिखावे मेँ दो कदम आगे बढ़ा दिया ।
सँगीता सहेलियोँ समेत नीचे भागीँ ।
कुछ देर तक छत पर बैठा अपनी बेशर्मी पर खुद को दाद दे रहा था ।
परन्तु थोड़ी देर बाद जब नीचे उतर रहा था तो मेरे कानोँ मेँ जो शब्द गये वो मेरे मन मष्तिस्क मेँ भूचाल खड़े कर गये ।
क्योँ कि सँगीता को बड़ी मासूमियत से माँ से कहते हुए पाया कि -"देखो शिवप्रसाद जीजा ने मेरा ब्लाउज फाड़ दिया ।"
मैँ स्तब्ध और हैरान सोचने लगा - शर्म-सँकोच के कारण मैँ तीसरा कदम तो बढ़ा नही सका फिर भला बिना स्पर्श किए ब्लाउज कैसे फट गई ।
दूसरे दिन दिल्ली तो आ गया परन्तु मेरी मानसिक स्थिति बेहद अजीब थी ।
मै स्वयँ को परस्पर तीन विरोधी बातोँ से घिरा हुआ पाता ।
कुछ पल तो ऐसा प्रतीत होता जैसे मेरी शादी यदि सँगीता से नही हुई तो मेरा जिवित बचना असम्भव है ।
कुछ ही पलोँ बाद मेरे हृदय की भावना विपरीत हो जाती ।इस अवस्था मेँ मेरा मन ठहाके लेकर कहता अरे भला मैँ किसी लड़की की वजह से क्योँ मरने लगा ।
इन दोनोँ विचारोँ के बाद एक सामान्य समीछक विचार उत्पन्न होता जिसमेँ इन दोनोँ पर परस्पर विरोधी विचारोँ का अवलोकन करते हुए पाता और समीछा करने लगता कि - अरे मुझे हो क्या रहा है । एक पल मेँ सँगीता मेरी जिन्दगी बन जाती है तो दूसरे पल एक साधारण लड़की ।
कुछ दिनोँ बाद भाभी माँ के द्वारा उस ब्लाउज काँण्ड का रहस्योद्घाटन हुआ कि सीढ़ियोँ पर भागते समय भाभी माँ ने सँगीता की बाँह पकड़ कर झिड़का था ऐसे मेँ फट गया होगा तो मेरा मन शान्त हो गया परन्तु प्रश्नचिन्ह छोड़ गया कि - आखिर ये कैसी मानसिक स्थिति थी ?
मेरे प्यारे दोस्तोँ हमारे मन की यही अवस्था मोह अर्थात आसक्ति कहलाती है।
जब किसी विषय,वस्तु अथवा ब्यक्ति के प्रति हम आवश्यकता से अधिक चिन्तन करने लगते हैं तो
हमारा मन उस पर आसक्त हो जाता है
जो हमारे मन में एक जुनून और अन्धता को जन्म देने लगता है
जिसके कारण हमारी विवेकशीलता निष्क्रिय होने लगती है
विवेकशीलता के नष्ट होने पर उचित-अनुचित का बोध किये बिना ही हम अधर्म अर्थात निषिद्ध कर्म करने लगते हैं
जैसे कि- पुत्र और पुत्री में असमान व्यवहार,
पारिवारिक सामंजस्य का अभाव,
विवाह उपरांत माता-पिता की उपेक्षा,
चोरी, ठगी, धोखाधड़ी,..... आदि।
वास्तव में हमें इस माया संसार से बांधे रखने वाली भावना मोह ही है
जो हमारे मन को कभी सुख और कभी दुख की अनुभूति कराती है।
मेरे प्यारे दोस्तोँ हम सभी जानते हैं कि देह त्याग के पश्चात्ह हमारे कर्म ही हमारी पूंजी होगी
परन्तु
हम मोह की माया बंध कर संसार के अन्य आकर्षण और छलावे में बुरी तरह उलझ कर उचित-अनुचित का भेद भूल जाते हैं।
🙏🙏🙏
अगले भाग में फिर मिलेंगे।
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🙏सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"भगवद शरण(कृपा)" प्राप्ति हेतु
प्रत्येक शब्द महत्वपूर्ण"
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
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