भाग .27
"सर्वश्रेष्ठ मानव सेवा दर्शन"

मेरे प्यारे दोस्तोँ जैसा की भाग 3 मेँ बताया था कि
एक प्रार्थना करते समय जब अपनी बुद्धि पर भरोसा करने की बजाय स्वयँ को "ईश्वराधीन"(समर्पण) करते हुए  "जीवनके सर्वश्रेष्ठ मार्ग"  पर चलाने की प्रार्थना कर बैठा था ।

इसी प्रार्थना के फलस्वरूप ही "श्री भगवान" ने एक घटना के माध्यम से आत्महत्या के लिए बाध्य कर निःस्वार्थ सेवा भाव से जीने का सँकल्प कराया ।
फिर उन्ही जगदीश्वर की ही इच्छा से विवाह और फिर बच्चोँ की उत्पत्ति भी हुई ।

आर्थिक अवस्था ऐसी कि घर परिवार चलाना मुश्किल ।
ऐसी अवस्था मेँ "सेवार्थ भावना" की पूर्ति के लिए तड़पना ।
 क्योँ कि
 उस समय तक मै यही समझता था कि सेवार्थ भावना की सिद्धि के लिए धन ही मुख्य श्रोत है ।

परन्तु "भागवत गीता" देखने और निजी अनुभवोँ तथा निजी मानसिक अवस्थाओँ का अवलोकन करने के बाद ये निषर्कष निकालता पाया कि
कोई भी इन्सान चाहे जितना भी धनिक हो उसे सुख-शान्ति कभी नही मिल सकती जब तक कि उसके अन्दर ज्ञानोदय ना हो ।


जब कि ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात निर्धन से निर्धन ब्यक्ति भी सुखी और सन्तुष्ट हो जाता है ।
क्योँ कि
ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात मनुष्य अच्छी तरह जान जाता है कि भौतिक विषय-वस्तुऐँ नश्वर और निरर्थक होतीँ हैँ ।
अब मेरे सम्मुख प्रश्न था कि किसी मनुष्य को सार्थक ज्ञान की उपलब्धि कैसे हो ?


जाने कितने ही ज्ञानी और गुरूजन इस प्रयास मेँ अपना सम्पूर्ण जीवन न्योवछावर कर रहेँ है फिर भी श्रोतागण जस के तस बनेँ रहतेँ हैँ ।

ऐसे मेँ अपनी स्वयँ की शरणागति और स्वयँ जगदीश्वर के द्वारा दिये गये ज्ञान का अवलोकन करके पाया कि
यदि कोई भी इन्सान सच्चे भाव से एक बालक के समान निश्छल बुद्धि और श्रद्धा भाव से "प्रभु आश्रय"(शरणागति)को अपनाता है
 तो
निश्चय ही जगदीश्वर अपने ऐसे शरणागत का हाथ थाम लेतेँ हैँ और किसी ना किसी घटना अथवा अपने किसी सच्चे स्वरूप "गुरू" के माध्यम से प्रभावी ज्ञान प्रदान अवश्य ही करते हैँ ।



हे मेरे प्रिय मित्रोँ मैँ इसी आशय से ही अपने असीम अनुभवोँ को आप मेँ बाँटता रहा हूँ ।

मुझे ब्यर्थ की प्रशँसा और लाइक से किसी तरह की प्रशन्नता नही मिलती
यदि प्रशन्नता मिलती है तो केवल ये देख कर कि आप प्रिय मित्रोँ पर मेरे प्रयास का प्रभाव हो रहा है या नही ।

इसलिए हे परम प्रिय मित्रोँ मेरी मित्रता को सार्थक करते हुए और अनुभवोँ का लाभ उठाते हुए स्वयँ को "जगतश्रेष्ठ" के परायण कर दो । इसी मेँ ही जीवन की सार्थकता है ।

कहतेँ हैँ अपने निजी ईश्वरीय अनुभवोँ को किसी से बाँटा नही जाता ।
क्योंकि अपने आध्यात्मिक अनुभव किसी को बताने के पीछे  मुख्यतः हमारे अहंकार का ही हाथ होता है।
और
 अहंकार ही हमारे पतन का मूल कारण होती हैं

इससे अध्यात्मिक शक्तियोँ का ह्वास(छय) होता है


परन्तु मुझे इन अनुभवोँ को "प्रसाद" की तरह बाँटने के कारण असीम अध्यात्मिक लाभ हो रहा है ।

क्योँ कि ये अनुभव निश्चय ही "प्रभु कृपा" और प्रेरणा ही जानिए ।
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपनी निर्मल छाया प्रदान करेँ ।

सादर सप्रेम नमन।।

।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।