भाग .22
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।
4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।
प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं
ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।
आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।
जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
"श्री भगवान के द्वारा निष्काम कर्म योग का अभ्यास कराना"
सप्रेम सादर 🙏 प्रणाम मेरे प्यारे मित्रोँ
प्यारे मित्रोँ "निष्काम कर्म" के उत्पत्ति का विषय "रति क्रिया" पर आधारित होने के कारण इस पर पोस्ट लिखने मेँ सँकोच हो रहा था ।
परन्तु
"प्रभु की शरणागति" का विषय था
इस लिए मैँ नही चाहता कि "प्रभु आश्रय" के प्रति किसी भी प्रकार का सँदेह शेष रहे ।
प्यारे दोस्तोँ मेरा विवाह "वैराग्य" अवस्था के दौरान ही हुआ था ।
मन मे किसी भी विषय-वस्तुओँ के प्रति कोई कामना और आकर्षण नही था ।
सभी प्रकार के भौतिक सुख नीरस से ही लगते थे
यहां तक कि अपनी अर्धांगिनी के साथ रतिक्रीड़ा भी तुच्छ और मन का उन्माद जान पड़ता था
परन्तु मुझे इस बात का पूर्ण ज्ञान था कि
अपनी धर्मपत्नी की शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओँ की पूर्ति करना भी मेरा धर्म(कर्तव्य) ही है ।
इसी कारण किसी भी प्रकार की रस ,आसक्ति ना मिलने के बावजूद भी पत्नी को रति क्रिया के लिए प्रेरित और पहल किया करता था ।
विवाह के लगभग डेढ़ साल बाद धीरे-धीरे मुझमेँ वैराग्य का लोप होने लगा ।
अब मुझे भी भौतिक विषयोँ मेँ रस और आसक्ति की अनुभूति प्राप्त होने लगी थी ।
कितनी विचित्र बात थी कि अब तक जिस रति क्रिया को केवल पत्नी के प्रति अपना कर्तब्य अर्थात धर्म मानकर करता रहा था ।
अब मेरी स्वयँ की भूख बन गई थी ।
जिसकी पूर्ति ना होने पर हृदय मेँ खीझ और क्रोध के भाव उत्पन्न होने लगता था ।
जिसके कारण मेरी मानसिक स्थिति शांतिमय से अशान्तिमय होने लगी ।
अपनी देवी जी की रति क्रिया मेँ नीरसता को देख एक बार तो अधिकार पूर्वक क्रोध का प्रदर्शन कर के भी देखा तो ऐसी अवस्था को रसहीन पाया ।
ध्यान रखना मित्रोँ रति क्रिया मेँ पति और पत्नी दोनोँ की आपसी सहमति के होने पर ही सुखदाई प्रेममयी छणोँ का विस्तार होता है ।
केवल अपनी कामेच्छा की पूर्ति के लिए पत्नी से भी बनाया गया प्रेमरहित सम्बन्ध दुर्भाग्य पूर्ण और पतन कारक सिद्ध होता है ।
अब मै अपने मन को वासना जनित कुँठा से मुक्त करने का उपाय खोजने लगा ।
मन मेँ आया कि अपनी कामेच्छा का दमन कर लूँ ।
ना तो प्रयास(पहल) करूँगा और ना ही इस विषय मेँ सोचूँगा ।
क्योँ कि विषयोँ के चिन्तन से ही आसक्ति का जन्म होता है ।
परन्तु
कुछ ही दिनोँ मेँ इस बात का भी अपराध-बोध होने लगा कि - इस तरह अपनी पत्नी के साथ अन्याय कर रहा हूँ । क्योँ कि
लज्जाशील नारी अपने मुख से कभी ना कहेगी....।
ऐसी अवस्था मेँ अपने मन की स्थिरता(शान्ति)बनाये रखने के लिए फल की इच्छा का त्याग कर निरासक्त भाव से केवल अपने कर्तव्य पालन की भावना से पहल लगा ।
जिसमेँ सफलता भी मिली ।
जो शान्ति मार्ग मेँ परम सहायक सिद्ध हुआ ।
प्यारे दोस्तोँ जब हम कोई कर्म करते हैँ तो उसके फलोँ के विषय मेँ सोच-सोच कर अपने मन को कर्मफलोँ के प्रति पूरी तरह आसक्त कर लेतेँ हैँ ।
परन्तु
होता वही है जो हमारे प्रारब्ध(भाग्य)मेँ है ।
बहुत परिश्रम करने के बाद भी कामना पूर्ति ना होने के कारण हम अत्यन्त दुखी और निराश हो जाते है ।
इस घोर निराशा और दुख से बचने के लिए हमेँ अपने मन को निरासक्त बनाना पड़ेगा ।
निरासक्त होने पर ही सुख-दुख की भावना से मुक्ति और शांति मिलेगी।
मन को निरासक्त बनाने के लिए अपने किए गये कर्म के फलोँ के विषय मेँ कल्पनाशीलता का त्याग करना होगा ।
फल की आशा से रहित हो कर अपने कर्तब्योँ को अपना धर्म मान कर कार्य करने की विधि को ही "निष्काम कर्मयोग" कहते है ।
आशा = आसक्ति ही हमारे दुखोँ का मूल है ।
इसी कारण हमारे "जगत गुरू श्री भगवान" ने फल की आशा त्याग कर अपने कर्तब्योँ को केवल अपना धर्म मान कर करने की बात कही है ।
मैँ तो बस यही कहूँगा कि- "भावनाओं से मुक्त होना और शांति तथा कर्म योग का अभ्यास इतना सहज नहीं है
यह केवल भगवत कृपा से ही संभव है"
इसलिए
"प्रभु आश्रय अपनाइए ,जीवन सफल बनाइए"
आखिर हमारे जगतगुरू "श्री भगवान" ने यूँ ही नही कह दिया -
"सर्वधमार्न परित्यज्यै ,
मामेकं शरणं ब्रिज ।
अहंत्वा सर्वपापेभ्योः,
मोक्ष्चामि माशुचा।"
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्त वत्सल की।।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
भगवत कृपा प्राप्ति का सबसे सरलतम उपाय
सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।
4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।
प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं
ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।
आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।
जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
0 टिप्पणियाँ