भाग .10
"प्रभु जी द्वारा अहँकार हनन और जीवन के सर्वश्रेष्ठ सेवा मार्ग का दर्शाना"
उन सभी मित्रोँ से निवेदन है कि जो पिछले सभी भाग नही पढ़ पाऐँ है अवश्य पढ़ लेँ ।
विशेषकर भाग .3 और 4 अवश्य पढ़ लेँ । जो इसी एलबम है ।
मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने मन को पूर्णतया शुद्ध करने के लिए मेरे अनेकों प्रयास विफल हो रहे थे।
काम भावना से ग्रस्त अपनी मनोदशा से अन्ततः हार कर स्वयँ के आगे दृढ़ सँकल्प रूपी एक लछ्मण रेखा खीँच दी
वो ये था कि -
"जब तक वासना आँखोँ तक सीमित रही" तब तक तो ठीक है परन्तु जिस दिन वासना स्पर्श तक आई उसी दिन आत्महत्या कर लूँगा ।
अभी इस सँकल्प को लिए 2 या 3 दिन ही हुए थे ।
गर्मियोँ की रात थी मेरे बड़े भाई जी नाइट ड्यूटी मेँ रूक गये थे ।
मैँ और भाभी माँ खाना खा कर छत पर लेट गये ।
छत छोटी और सपाट थी इस लिए भाभी जी की चारपाई के पास ही मैँ भी चटाई बिछा कर लेट गया ।
भोर के समय लगभग 4 बजे का समय रहा होगा ।
अर्धनिद्रा की अवस्था मेँ मुझे स्वप्न दिखाई दिया कि " बहुत तेजी से आँधी आ गई है भाभी जी चारपाई समेँत उड़ने को है । जिसे उड़ने से बचाने के लिए एक हाथ से निद्रा अवस्था मे ही चारपाई दबा लेता हूँ
कुछ पलोँ के बाद मेरी अर्द्ध निद्रा पूरी तरह टूट जाती है ।
नीँद से जागते ही मेरा अन्तर्मन सवाल करता है "शिव तुम्हारा हाथ कहाँ है ।"
मेरा ध्यान हाथ पर जाता है जो भाभी माँ के वछ स्थल पर था ।
एक झटके से हाथ खीँचते हुए छत से नीचे उतर जाता हूँ ।
अब तो आखोँ के आगे बार-बार वही स्वप्न और स्वयँ के ठगे जाने के दुख मेँ फूट-फूट कर रोने लगता
क्यों कि अर्धनिद्रा में ही सही स्वयं से ही जीवन का शर्त हार गया था।
जिस कर्म को जाग्रत अवस्था मेँ असम्भव समझता था नीँद मेँ कैसे कर गया ?
कोई तो है जो मुझे मारना चाहता है ?
कौन है जिसने मुझे आत्महत्या के लिए विवश कर दिया ?
इन सवालोँ के साथ फूट-फूट कर रोये जा रहा था ।
अपने इस विचित्र हार पर मैँ अन्दर तक टूट चुका था
जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी । तर्क था - जब मेरा स्वयँ पर ही कोई नियन्त्रण नही तो जीने का क्या लाभ ?
फिर भी अनन्त दुख से सराबोर नहाया खाना खाया और रोते हुए साइकिल लेकर कम्पनी चल दिया ।
कम्पनी मेँ भी मशीन चलाते हुए कई तरह के सवाल मन मेँ उभर कर मुझे रुलाऐ जा रहे थे ।
तभी मेरे अन्तर्मन मेँ सवाल उभरा -"शिव अब तो तुम शर्त हार गये । अब क्या करोगे ?
फिर क्या दृढ़ प्रतिज्ञ होने के कारण फैसला सुना दिया कि -" यमुना जी के पुल पर सोचेँगे कि कैसे मरना है ।".........
🙏🙏🙏
शेष अगले भाग मेँ
जगदीश्वर आप सभी मित्रोँ को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
🙏
।।जय जय श्री राधेकृष्णा।।
1 टिप्पणियाँ
जय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।